Monday, December 18, 2023

#089 - गीता अध्ययन एक प्रयास

गीता अध्ययन एक प्रयास 


*ॐ*


*जय श्रीकृष्ण*


*गीता अध्याय 9 - ज्ञान-विज्ञान*


9/1

इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे। 

ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेअशुभात्।। 


9/2 

राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्। 

प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम।। 


9/3 

अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप। 

अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युससारवर्त्मनि।। 


9/4 

मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना। 

मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः।। 


9/5 

न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योग्यमैश्वरम्। 

भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः।। 


भावार्थ 


भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं - 


अत्यंत गोपनीय विज्ञान सहित यह ज्ञान मैं अच्छी तरह से तुझे बतलाऊँगा, जिसे जानकर तु इस जन्म-मरण रूपी संसार से मुक्त हो जाएगा। विज्ञान सहित यह ज्ञान पूरी तरह से सभी विद्याओं और सभी गोपनीय ज्ञान का प्रधान (राजा) है। यह अत्यंत पवित्र और श्रेष्ठ है। इसका फल भी दिखता है, यह धर्म के अनुसार है, नष्ट होने वाला नहीं है और पालना करने में सरल है। हे अर्जुन ! इन धर्म की बातों पर श्रद्धा न रखने वाले व्यक्ति मुझे (ईश्वर को) प्राप्त नहीं होते हैं और इस मृत्यु संसार में वापिस आते-जाते रहते हैं। यह पूरा संसार मेरे (ईश्वर के) अव्यक्त स्वरूप (निराकार स्वरूप) से व्याप्त है। सभी प्राणी मुझ (ईश्वर) में स्थित हैं, पर मैं (ईश्वर) उनमें स्थित नहीं। वे प्राणी मुझ (ईश्वर) में स्थित नहीं हैं, मेरे ईश्वर रूपी योग को देख। सम्पूर्ण प्राणियों को उत्पन्न करने वाला मेरा (ईश्वर का) स्वरूप उन प्राणियों में स्थित नहीं।  


प्रसंगवश 


ऐसा लगता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने परस्पर विरोधी बाते कहीं हैं। सार यह है कि ईश्वर सभी में व्याप्त रहते हुए भी निर्लिप्त रहते हैं। 'सम्पूर्ण प्राणी मुझ में स्थित हैं' से तात्पर्य है कि सारा जगत ईश्वर में स्थित है। 'मैं उनमें स्थित हूँ' से तात्पर्य है कि मेरी (ईश्वर की) सत्ता से उनकी सत्ता है। 


सादर, 

केशव राम सिंघल 



Wednesday, December 13, 2023

#088 - गीता अध्ययन एक प्रयास

गीता अध्ययन एक प्रयास 

*ॐ*

*जय श्रीकृष्ण*

*गीता अध्याय 8 - अक्षरब्रह्मयोग*

8/22 
पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया। 
यस्यान्तः स्यानि भूतानि येन सर्वमिदं तत्म।।  

8/23 
यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः। 
प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ ।। 

8/24 
अग्निज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्। 
तत्र प्रयाता गच्छान्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः।। 

8/25 
धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम्। 
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते।। 

8/26 
शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते। 
एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः।। 

8/27 
नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन। 
तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन।। 

8/28 
वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम्। 
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम्।। 

भावार्थ 

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं - 

हे पार्थ ! जिस परमात्मा (ईश्वर) के अंतर्गत सभी प्राणी हैं और जिससे यह पूरा संसार व्याप्त है, वह परमपुरुष (ईश्वर) तो अनन्य भक्ति से प्राप्त होने योग्य है। हे भारतवंशियों में श्रेष्ठ (अर्जुन) ! परन्तु जिस काल में शरीर त्याग कर गए व्यक्ति (योगी) वापिस लौटकर नहीं आते और जिस काल में वापिस लौटकर आते हैं, उन दोनों कालों के बारे में मैं तुम्हें बताऊँगा। जिस मार्ग में प्रकाशस्वरूप अग्नि के अधिपति देवता हैं, दिन के अधिपति देवता हैं और छह माह उत्तरायण के अधिपति देवता हैं, उस मार्ग में (दौरान) शरीर छोड़कर गए ब्रह्मवेत्ता योगीजन ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। जिस मार्ग में धूम के अधिपति देवता हैं, रात्रि के अधिपति देवता हैं, कृष्ण पक्ष के अधिपति देवता हैं और कृष्ण पक्ष के छह माह के दक्षिणायन अधिपति देवता हैं, उस मार्ग में (दौरान) जो शरीर छोड़ते हाँ, वे चन्द्रमा की ज्योति को प्राप्त कर लौट आता है अर्थात् उसका पुनर्जन्म हो जाता है। क्योंकि ये दोनों गतियाँ शुक्ल और कृष्ण अनादिकाल से इस संसार में होती आई है। एक गति में जाने वाले को लौटना नहीं पड़ता और दूसरी गति में जाने वाले को वापिस लौटना पड़ता है। हे पार्थ !इन दोनों मार्गों को जानने वाला कोई भी व्यक्ति मोहित नहीं होता, अतः हे अर्जुन ! तू हर समय समता में रह। योगी इन सबको जानकार वेद, यज्ञ, तप और दान में जो पुण्यफल हैं, उन सभी पुन्यफलों को प्राप्त करता है और आदि परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।  

प्रसंगवश 

शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष पंद्रह-पंद्रह दिनों का होता है। उत्तरायण और दक्षिणायन छह-छह माह की अवधि का होता है। जब सूर्य भगवान उत्तर की ओर चलते हैं, उसे उत्तरायण कहते हैं। उत्तरायण में दिन का समय बढ़ता है। उत्तरायण मकर संक्रांति से प्रारम्भ होता है। दक्षिणायन  21/22 जून से प्रारम्भ होता है। 

सादर,
केशव राम सिंघल 





Tuesday, December 12, 2023

मन और बुद्धि - 2

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मन और बुद्धि - 2

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मानवीय संबंधों के साथ जोड़ते हुए गुरुग्राम के दास कृष्ण मन और बुद्धि के निम्न आपसी सम्बन्ध प्रतिपादित करते हैं और बताते हैं कि कुल सोलह सदस्यों से यह जीवन यात्रा चलती है -


* (1) मन = आत्मा और प्रकृति (माया) की पुत्रवधू = बुद्धि की पत्नी

* (2) बुद्धि = आत्मा और प्रकृति का पुत्र = मन का पति

* (3) प्रकृति = माया = संसार = मन की सास = आत्मा की पत्नी = इन्द्रियों की दादी

* (4) शरीर = बुद्धि की बहन = मन की ननद = इन्द्रियों की मौसी

* (5 से 14) बुद्धि और मन के दस पुत्र और पुत्रियाँ = इद्रियाँ = पाँच कमेन्द्रियाँ + पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ

* (15) आत्मा = मायापति = संसार (प्रकृति) के पति

* (16) परम आत्मा = प्रकृति और आत्मा के पिता और माता 


सांख्य योग के दर्शन में भी यही कुल सोलह पात्र हैं। इन पात्रों की गतिविधि को समझाते हुए दास कृष्ण कहते हैं, मन तेल या लकड़ी है, बुद्धि आग है और आत्मा वायु है। आग (बुद्धि) के कारण लकड़ी या तेल (मन) जलता है और प्रकाश में बदल जाता है, लेकिन उसके लिए वायु (आत्मा) का होना जरूरी है। जब वायु (आत्मा) और लकड़ी / तेल (मन) साथ रहते हैं तो उनमें कोई बदलाव नहीं होता, लेकिन एक चिंगारी से उनमें आग लग जाती है। यह उदाहरण हमें यह समझाता हैं कि जिस तरह से आग को सावधानी से उपयोग में लाने की जरुरत होती है, उसी प्रकार बुद्धि को सावधान रहने की आवश्यकता है।


भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हुए स्पष्ट कहते हैं कि मन से भी अलग बुद्धि है। इन्द्रियाँ जड़ पदार्थ से श्रेष्ठ हैं, मन इन्द्रियों से बढ़कर (श्रेष्ठ) है, बुद्धि मन से भी उच्च है और आत्मा बुद्धि से भी बढ़कर है। (गीता अध्याय 3 श्लोक 42 में)


मन-बुद्धि अंतःकरण हैं। मन अच्छा-बुरा बहुत कुछ सोचता है, पर मन बुरा सोचे नहीं, यह तो और भी अच्छा होगा। इन्द्रियाँ व्यक्ति के कार्यकलापों के विभिन्न दरवाजे हैं। व्यक्ति का शरीर कार्यकलापों का घर है।


हरेक का जीवन एक व्यष्टि परिवाररूप है, जिसमें निम्न सोलह लोग रहते हैं - पहला, परम पिता अर्थात् परमात्मा - चाहे जड़ हो या चेतन हरेक कण में परमात्मा है; दूसरा, आत्मा अर्थात् चेतन अंश; तीसरा, माया अर्थात् यह संसार; चौथा, पाँचमहाभूत (अर्थात् जल, वायु, तेज, पृथ्वी और आकाश) से बना यह स्थूल शरीर; पाँचवाँ, बुद्धि; छठा, मन; सात से ग्यारह - पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ - श्रोत (कान), त्वचा, नेत्र, रसना (जीभ), और घ्राण (नासिका); बारह से सोलह - पाँच कमेन्द्रियाँ - वाक् (मूँह), पाणि (हाथ), पाद (पैर), उपस्थ और पायु। पाँच महाभूत से बना यह स्थूल शरीर 'विषय' है, इन्द्रियाँ 'बहिःकरण' हैं और मन-बुद्धि 'अंतःकरण' है।


मन और बुद्धि साथ-साथ रहते हैं, वे एक तरह से पत्नी और पति की तरह होते हैं। उनमें परस्पर युद्ध (विवाद) होता रहता है, पर वे अलग होकर भी नहीं रह सकते। एक तरह से देखा जाए तो कौरव और पाण्डव भी यही मन और बुद्धि हैं, जिनके बीच का युद्ध महाभारत है। हमारे अंतःकरण में चलने वाले इस युद्ध के रथ में मन घोड़े हैं और बुद्धि रस्सी (लगाम) है। घोड़े और लगाम सदा तनाव में रहते हैं। लगाम में तनाव होने से घोड़े भी तनाव में रहते हैं पर रहते हैं नियंत्रित और इसी कारण लक्ष्य की ओर बढ़ते हैं। लगाम को ढीला छोड़ देने से घोड़े अनियंत्रित होकर लक्ष्य से भटक सकते हैं।


मन जब कुछ कहता है, तब उसे सबसे पहले सुनने वाला बुद्धि होती है। बुद्धि के निर्णय के बिना मन इन्द्रियों से कुछ भी करवा नहीं सकता। मन स्वयं कोई निर्णय नहीं लेता, मन भाव-ताव करता है क्योंकि वह वैश्य है। बुद्धि क्षत्रिय है, जो साहसी है। मन के सभी निर्णय बुद्धि करती है या फिर मन इन्द्रियों के द्वारा बुद्धि की सहमति से करवाती है या फिर बुद्धि से छिपा कर करवाती है। जब कोई व्यक्ति कुछ गलत करता है या बुरा बोलता है, तब वह मन का दोष नहीं होता, बल्कि बुद्धि की कायरता, असावधानी या गलत निर्णय है।


बुद्धि जो मन को अनुशासित (अर्थात् नियंत्रित) करने में असफल है तो कहा जा सकता है कि व्यक्ति असावधान है। मन की वृतियों को रोकना संभव नहीं है। मन जब दुःखी होता है, तब वह शिकायत करने लगता है। बुद्धि के सावधान रहने की जरुरत है। यदि बुद्धि सावधान नहीं है तो मन अनियंत्रित होकर वाणी का दुरूपयोग करवाने लगता है या फिर इन्द्रियों के माध्यम से कुछ गलत करवा देता है। मन बुद्धि को नहीं जानता, पर बुद्धि मन को जानती है। बुद्धि मन की स्वामी है। बुद्धि मन को नियंत्रित-संयमित कर सकती है, दिशा दे सकती है।


हमारी जीवन यात्रा भी एक तरह का युद्ध ही है या यूँ कहें कि प्रत्येक का जीवन एक समुद्री यात्रा की तरह है, जो एक तरह का युद्ध ही है। जिस तरह समुद्री यात्रा में बहुत से खतरे होते हैं, उसी तरह हमारी जीवन यात्रा में बहुत से खतरे हैं। हमारी जीवन यात्रा तभी सुखद रह सकती है, जब मन रूपी नौका बुद्धि रूपी दिशा सूचक यंत्र के सहारे आगे बढ़े। जैसा कहा गया कि इस जीवन यात्रा में बहुत से खतरे है। इस यात्रा में मन को ही सबसे अधिक क्षति होती है, नुकसान होता है। मन की रक्षा करना प्रत्येक का उत्तरदायित्व है। संसार के वैभव किस काम के जब मन ही टूट जाए।


मन की इच्छाओं (desires of the mind) का सम्मान करना जीव (व्यष्टि आत्मा, जिसने शरीर धारण कर रखा है) का कर्तव्य है। अशांत मन से जीव की आत्मा निर्बल हो जाती है। (The soul of an organism becomes weak with a restless mind.) मन का अशांत होना बुद्धि की दिशा पर निर्भर है। दिशा सही तो दशा (परिणाम) सही।


मन के पाँच मुख्य दोष होते हैं - विषाद (sadness), क्रूरता (cruelty), व्यर्थ-चिंतन (waste-thinking), निरंकुशता (autocracy) और बुरे विचार (bad thoughts)। मन के इन दोषों का नाश विशुद्ध विचारों (pure thoughts) अर्थात् प्रसन्नता (happiness), सौम्यता (mildness), मानसिक मौन (mental silence), मनोनिग्रह और शुद्ध भावों (pure emotions) के परिशीलन (purification) से किया जा सकता है। दिन-रात संसार के अनुकूल-प्रतिकूल विषयों का चिंतन करते रहने से मन कभी शांत नहीं रह पाता है। इसके लिए बुद्धि का मन को अच्छी तरह समझकर संयमित और वश में करने की जरूरत है। मन आत्मा का स्वामीं नहीं, वरन सेवक है। यदि मन नियंत्रित होगा तो हमारे सभी शुभ कायों में यह हमारा सहायक बन जाएगा।


मन में इच्छा होती है। मन की इच्छा के कारण कर्मबन्धन है। मन रूपी नौका इस संसार के साधनों से चलती है, पर हमें अपना जीवन उन्नत करना है और मन को इसी संसार के पार ले जाना है। इसके लिए मन को लक्ष्य और परिस्थितियों के अनुसार संयमित करने की जरुरत है।

संत कबीर दास जी का एक दोहा है -


"माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर।

आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर।"


भावार्थ - संत कबीर दास कहते हैं - मायाधन और इंसान का मन कभी नहीं मरा, इंसान मरता है, शरीर बदलता है, लेकिन इंसान की इच्छा और ईर्ष्या कभी नहीं मरती।


कबीर दास जी कहते हैं कि शरीर, मन, माया सब नष्ट हो जाता है परन्तु मन में उठने वाली इच्छा और तृष्णा कभी ख़त्म नहीं होती। इसलिए संसार के मोह तृष्णा आदि में नहीं फँसना चाहिए।


ॐ तत् सत्।


शेष फिर ,,,,,,,,,


सादर, 

केशव राम सिंघल


*साभार*

- श्रीमद्भगवद्गीता साधक संजीवनी - हिंदी-टीका, स्वामी रामसुखदास जी

- श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप, स्वामी प्रभुपाद जी

- प्रवचन लेख, गुरुग्राम निवासी श्रीकृष्ण भक्त 'दास कृष्ण' श्री कृष्ण गोपाल मिश्र जी 



#087 - गीता अध्ययन एक प्रयास

गीता अध्ययन एक प्रयास 


*ॐ*


*जय श्रीकृष्ण*


*गीता अध्याय 8 - अक्षरब्रह्मयोग*


8/19 

भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते। 

रात्र्यागमेअवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे।। 


8/20 

परस्तस्मासत्तु भावोअन्योअव्यक्तोअव्यक्तात्सनातनः। 

यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति।। 


8/21 

अव्यक्तोअक्षर इत्युक्तास्तमाहुः मरमां गतिम्। 

यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।। 


भावार्थ 


भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं - 


हे पार्थ ! ये सभी प्राणी बार-बार प्रकृति के अधीन उत्पन्न होते हैं, जो ब्रह्मा के दिन के समय पैदा होते हैं और ब्रह्मा की रात्रि में लीन हो जाते हैं। परन्तु उस ब्रह्माजी के सूक्ष्म शरीर (अव्यक्त) से अन्य सनातन दूसरा भावरूप जो अव्यक्त है, वह सभी प्राणियों के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता है। उसी (ईश्वर) को अव्यक्त और अक्षर (नष्ट न होने वाला) कहा गया है तथा उसे परमगति कहा गया है, जिसको प्राप्त होने पर प्राणी फिर संसार में वापिस नहीं आते हैं, वही मेरा परमधाम है।  


प्रसंगवश 


हम सभी प्राणी अनादिकाल से जन्म-मरण के चक्र में बार-बार पैदा होते रहते हैं और मरते रहते हैं और यह चक्र तब तक चलता है जब तक हमें परमगति नहीं मिल जाती। 


दूसरा भावरूप जो अव्यक्त है, वही तो ईश्वर है, सदा रहने वाला, कभी नष्ट न होने वाला। 


सादर,

केशव राम सिंघल 






Thursday, November 9, 2023

मन और बुद्धि - 1



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मन और बुद्धि - 1

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हमारा मन इन्द्रिय मन है, हमारी इन्द्रियों से जुड़ा है और हमारे कारण-शरीर से भी जुड़ा है। इस मन में दो प्रकार की कामनाएँ पैदा होती रहती हैं, पहली - भीतर की कामना, जो स्वतः उठती है, और दूसरी - बाहर की कामना, जो व्यक्ति की स्वयं की होती है। गुरुग्राम के दास कृष्णा कहते हैं - "मन की स्थिति हवाई जहाज की होती है जो संसार से उठने वाले विचारों या वायु की तरंगों को चीरता हुआ अपने लक्ष्य की ओर जाता है। हवाई जहाज या मन के इस पथ या मार्ग पर चलने को ही जीवन यात्रा कहते हैं। आत्मा इस मन रूपी हवाई जहाज का पायलट है और बुद्धि उसका दिशा सूचक यंत्र।"


भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा था - "पृथ्वी-जल-तेज-वायु-आकाश (पंचमहाभूत), मन-बुद्धि और अहंकार, ये आठ प्रकार के भेदों वाली मेरी अपरा (परिवर्तनशील) प्रकृति है। हे महाबाहो (अर्जुन), इस अपरा (परिवर्तनशील) प्रकृति से भिन्न मेरी जीवरूपा परा (अपरिवर्तनशील) प्रकृति को जान, जिसने (जिसके द्वारा) यह जगत धारण किया (बनाया और रखा) जाता है।"


मन और बुद्धि परस्पर संवाद करते रहते हैं। मन अपनी मर्जी का मालिक होता है और स्वभाव से चंचल। बुद्धि में अहंकार होता है। मन और बुद्धि की यह तामसिक दशा है। सात्त्विक दशा में मन निर्मल और बुद्धि प्रज्ञा (ज्ञान या wisdom के स्रोत) के रूप में जान पड़ते हैं।


बुद्धि का सहज गुण स्थिरता है। यह मन की तरह चंचल नहीं होता। बुद्धि का सम्बन्ध सूर्य से और मन का सम्बन्ध चन्द्रमा से है। दैहिक मन (सोमात्मक मन) जब सौर बुद्धि (Solar mind) से जुड़ता है तो यह (मन) आसक्तिरहित हो जाता है।


आत्मा मन-प्राण-शरीर के साथ रहता है। मन अस्तित्व के साथ जुड़ा रहता है। मन आत्मा के साथ जुड़ा है। प्राण जीवन का गतिमान तत्व है। ये तीनों ही जीने के साधन हैं, जिनका उपयोग आत्मा करता है। प्राण के माध्यम से आत्मा और मन शरीर से जुड़ा है।


शरीर तीन होते हैं - स्थूल-शरीर, सूक्ष्म-शरीर और कारण-शरीर। मन भी तीन होते हैं - इन्द्रिय मन, सर्वेन्द्रिय मन और महन्मन।


ॐ तत् सत्।


शेष फिर ,,,,,,,,,


केशव राम सिंघल

सादर साभार - दास कृष्ण, गीता पर रामसुखदास जी की पुस्तक और गुलाब कोठारी (राजस्थान पत्रिका) लेख

Sunday, July 9, 2023

गीता सार - ०१

गीता सार - ०१
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जय श्रीकृष्ण। 

गीता भगवान् की वाणी है। 
गीता उपनिषदों का सार है। 
आकाश में एक गुण 'शब्द' है, वायु में दो गुण 'शब्द और स्पर्श' हैं। 
सभी दर्शन गीता के अंदर हैं। 
वासुदेवः सर्वम् = भगवान् सर्वत्र हैं। 
प्रवृति का उदय होना भोग है। 
निवृति की दृढ़ता होना योग है।  
सब कुछ परमात्मा है। यही गीता मानती है।  
गीता समग्र की वाणी है।  
गीता को जो जिस दृष्टि से देखता है, उसे वह वैसी ही दिखती है।  
कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग तीन योग हैं।  
शरीर (अपरा) को लेकर कर्मयोग है। 
शरीरी (परा) को लेकर ज्ञानयोग है। 
शरीर(अपरा) और शरीरी (परा) दोनों के मालिक भगवान् को लेकर भक्तियोग है। 
समत्वं योग उच्यते = समता योग है। (२/४८)
योगस्थः कुरु कर्माणि = योग की आवश्यकता कर्म में है। (२/४८)
योगः कर्मसु कौशलम = कर्मों में योग ही मुख्य है। (२/५०)
संसार में व्यक्ति और वस्तु के साथ संयोग होता है। जहाँ संयोग होता है, वहीं कर्तव्य पालन की जरुरत है। संयोग का तो वियोग होता है, पर योग का वियोग नहीं होता।  
योग की प्राप्ति पर राग-द्वेष, काम-क्रोध से मुक्ति मिलती है।  
योग की प्राप्ति पर स्वाधीनता, निर्विकारता असंगता और समता की प्राप्ति होती है। 

ॐ तत् सत् !

संकलन - केशव राम सिंघल 



Tuesday, April 25, 2023

मन की शान्ति

मन की शान्ति 

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हमारा मन बहुत ही गतिशील और चंचल है और यही हमारी अशांति का कारण बन जाता है। कई बार हमारे आस-पास और हमारे अन्दर भी एक घमासान युद्ध चलने लगता है, कई तरह के विचार जन्म लेते हैं और हम उलझ जाते हैं। यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि हमें काम, क्रोध, मद, लोभ, अज्ञानता, चाटुकारिता, मोह से इतना लगाव हो जाता है कि हम अपने इन शत्रुओं के अधीन हो जाते हैं और उचित निर्णय नहीं ले पाते हैं। हमारी ग़लत सोच ही हमारे जीवन में एक मात्र समस्या है। मोह के कारण हम उचित और न्यायसंगत निर्णय लेने से भटक जाते हैं। हमारा मन स्थिर नहीं रहता, यह बदलता रहता है। 


हमारा वर्तमान भौतिक अस्तित्व (रूप) अनस्तित्व के दायरे में है। हमें अनस्तित्व से घबराना नहीं चाहिए। वास्तव में हमारा अस्तित्व सनातन है, शाश्वत है। हम भौतिक शरीर में डाल दिए गए हैं। हमारा यह भौतिक शरीर (व अन्य भौतिक पदार्थ) असत् है। असत् जो शाश्वत नहीं है, जिसका अस्तित्व स्थाई नहीं है। परिवर्तनशील शरीर का स्थायित्व नहीं है। शरीर और मन बदलता रहता है, पर आत्मा स्थाई रहता है। आत्मा शाश्वत है। आत्मा सत् है।


*इंद्रियाणान् .....* (गीता 2/67) में बताया गया है - "जिस प्रकार पानी में तैरती नाव को ते़ज (प्रचंड) वायु (या लहर) उसे दूर बहा ले जाती है, उसी प्रकार चंचल इंद्रियों के साथ मन सदा लगा रहता है और यह व्यक्ति की बुद्धि को दूर बहा ले जाती है अर्थात व्यक्ति अपने मन को स्थिर नहीं रख पाता है।"  


जिस व्यक्ति की इंद्रियाँ इंद्रिय-विषयों से विरत रहकर उसके वश में रहती हैं, उसकी बुद्धि स्थिर है। स्थिर बुद्धि का व्यक्ति भोगों को नही चाहते हुए शान्ति में स्थिर रहता है। जो व्यक्ति इंद्रियतृप्ति  की भौतिक इच्छाओं का त्याग कर देता है और जो इच्छा-रहित, ममता-रहित और अहंकार-शून्य रहता है, वह पूर्ण (वास्तविक) शान्ति प्राप्त करता है। यही वह आध्यात्मिक स्थिति है जिसे प्राप्त कर व्यक्ति कभी मोहित नहीं होता और इस प्रकार जीवन के अन्तिम समय में वह ब्रह्म-आनंद प्राप्त करता है। 


मन में ऐसा भाव आए कि "मैं किसी को बुरा ना समझूँ, किसी का बुरा ना चाहूँ और किसी का बुरा ना करूँ" तो समझो कि कर्मयोग की शुरुआत हो चुकी है। कर्मयोग का अर्थ है चित्त की स्थिरता, संयमन, इंद्रियों का निग्रह करते हुए तथा परमात्मा (श्रीभगवान) के साथ सम्बन्ध बनाते हुए अपना कर्म करना। पर यह कैसे हो?


इस बारे में भगवान श्रीकृष्ण (गीता 3/42) कहते हैं - इंद्रियों को श्रेष्ठ कहा जाता है। इंद्रियों से श्रेष्ठ मन है। मन से भी श्रेष्ठ बुद्धि है और आत्मा बुद्धि से भी श्रेष्ठ है। इस प्रकार बुद्धि से श्रेष्ठ आत्मा को जानकर बुद्धि के द्वारा मन को वश में कर। इस प्रकार मन को बुद्धि के द्वारा संयमित और स्थिर किया जा सकता है। 


मन में जितनी भी बातें आती हैं, वे प्रायः भूतकाल या भविष्यकाल से सम्बंधित होती हैं अर्थात् जो गया या जो होने वाला है, पर यह सब अभी (वर्तमान में) नहीं होता। हमें शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राणादि से अपने को ऊँचा उठाने का प्रयास करना चाहिए। जितना हो सके जड़ वस्तुओं से सम्बन्ध त्यागना चाहिए। हमें यह समझ लेना चाहिए कि असत् के द्वारा सत् की प्राप्ति नहीं होती, वरन असत् के त्याग से सत् की प्राप्ति होती है। पदार्थ, क्रिया और संकल्पों में आसक्त ना हो, ऐसा प्रयत्न करना चाहिए।  


दो बातें महत्वपूर्ण हैं - पहली, चित्त स्वरूप में स्थित हो जाए और दूसरी, पदार्थों से निःस्पृहः हो जाए। मन में किसी वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, काल आदि का चिंतन न हो और कोई काम, वासना, आशा आदि न हो। मन वस्तुतः बहुत चंचल होता है, पर हमें यह सीखना चाहिए कि अंतर्मन को वश में करने की जरूरत है। मन की शान्ति से बढ़कर संसार में कोई भी संपत्ति नहीं है। 


सादर,

केशव राम सिंघल